Friday 28 December 2012

हम इडियट है ----------------



जस्टिस काटजू का बयान आया कि ९० % हम देशवासी इडियट है, वह भी हमने सहन कर लिया. आप न्यायाधीश रहे हो, आप ही बुद्धिमान है मान लिया. किन्तु सबके लिये इडियट शब्दों का प्रयोग करना हमारा अपमान करना है. हम चाहे जैसे भी हो ? हम सब अपना खुद कर लेते है. जिस व्यक्ति को लोग प्रधान मंत्री के रूप में देख रहा है उसकी कमजोरी गिना कर अपने को धन्य भाग समझ रहे है. कुपोषण की की तुलना में मोदी शिवराज से पीछे है ? कहकर इनमे फुट डालने का प्रयास भी इन्ही का है, मतलब साफ है. जैसे भी हो हम समाचार पत्रों में अपनी पहिचान ना खोये यही प्रयास हो रहा है. व्यक्तिगत जीवन में देहली के रेप कांड के संदर्भ में किसी ने ताक झांक की है ? सुबह रेली में भाग ले कर शाम कही ओर बिताते है ? यह व्यक्तिगत जीवन है, इस जीवन में कोई टिपण्णी करने का किसी कोअधिकार नहीं है. सच तो यह है कि हमाम में सब नंगे है. काटजू भी नहाते तो होंगे ही ? एक नंगा दूसरे को नंगा कैसे कह सकता है. वाणी की अभिव्यक्ति का वास्तविक रूप से ऐसे विद्वान ही लाभ उठाते है ? ये सब बयान हमारे साथ मजाक है. भले ही इडियट हो किन्तु हमारा भी एक उसूल है. लगता है ये महाशय इस सिद्धांत से परिचित नहीं है. जानवरों का एक प्रोटोकाल हो सकता है तब हम जैसे बेकुकुफो का क्यों नहीं? शर्म हर किसी में होती है, जो इसे त्याग देता है वाणी की स्वत्रंतता वही भोगता है ? यही मेरे विचार से ऐसे बुधिजिवियो के लिये सच हो सकता है. शेर अपनी शिकार खुद ही खोझ कर अपना भोजन खुद ही तैयार करता है, यह सामान्य लोग भी जन भी जानते है, फिर बुद्धिमान लोग इस प्रिंसिपल से क्यों कन्नी काट रहे है ?

Thursday 13 December 2012

जीवन एक महाभारत है। ***

पता नहीं आप यह सोचते है या नहीं किन्तु यह सत्य है कि कृष्ण का महाभारत जीवन में आज भी प्रासंगिक है। अपनों से लड़ने की इच्छा नहीं होती। पराये को दुःख देना स्वभाव में नहीं है। इधर उधर की बातों का ज्ञान नहीं है। जो अच्छा लगता है वह करना चाहते है किन्तु परिवार आड़े आजाता है। किसको देखे किसकी सुने, यही भ्रम है। इसकी सुने तो वह नाराज उसकी सुने तो दूसरा नाराज ? किन्तु किसको नाराज करे यह बताने वाला सारथी नहीं है, इस सारथी के अभाव में जो जैसा चाहता है करता है, इसी कारण जीवन कभी कभी दुखमय हो जाता है, जैसा हो रहा है वही ठीक है, ऐसा मानने वालो की कमी नहीं है। लेकिन यह ठीक नहीं है, जीवन हमारा है, जीवन के कर्तव्य हमारे है, फिर इसे करने के लिये क्यों लोग आड़े आते है? बिना कुछ किये ही सारे संतुष्ट हो जाए यही जादूगरी है, जिसका जो धर्म आधारित काम है, उसे करना ही पड़ेगा, यही सब सोचते है, इसके लिये संसाधन कहा से आयेंगे इसको कोई जानता नहीं, कुल मिलाकर जैसा अच्छा हो सकता वही करता है,इसके लिये कोई भागीदारी स्वीकार करने को तैयार नहीं? अकेला होने के बाद भी एक एक पैसे को जुटाकर अपना धर्म पूरा करता है। जानते है कि यह उन्हें ही करना है। वे ही करेंगे । जिससे थोड़ी बहुत भागीदारी की आशा हम करते वही दूर भागता है? अपना स्वार्थ सब देखते है। धर्म आधारित काम होने के बाद, सब पास आकर महाभारत सुनाते है, इस महाभारत में जो स्वयं योध्या हो वह इनकी महाभारत क्यों सुनेगा? वास्तविकता यह है कि जीवन के इस योध्या को धतराष्ट्र बनाकर हर कोई संजय बनकर उसके किये हुए का हाल बताना चाहते है। अद्भुत बात यह है कि हम अपने माँ बाप को अंधा बनाकर उन्हें उनकी गाथा को अपना बनाकर सुनाते है, आज यह खूबी है, अपना सारा बोझ उन पर डालकर खुद उनका संचित धन अपने कब्जे कर रहे है। जानते है कि उन्हें अपने धर्म आधारित कार्य में उन्हें तकलीफ है, फिर भी उन्हें उनके धन का उपयोग नहीं करने दिया जाता। सब धतराष्ट्र बन रहे है, जो दिशा दिखाता है वही संजय है। धतराष्ट्र तो बहुत है किन्तु संजय कम है, श्रवन जैसा सारथी इन सबके नसीब में नहीं है। आज देश के लगभग २०-२५% व्यक्ति ऐसा ही जीवन जी रहे है। यही सत्य के करीब है । WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.
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हर कुर्सी में उर्जा होती है -----------------


हर कुर्सी में उर्जा होती है
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इस युग में व्यक्ति की पढाई से जादा उसकी बोल चाल पर जादा ध्यान दिया जाता है, यदि किसी आफिस में आपकी कुर्सी न हो तो आप किस के कुर्सी पर बैठते इस पर सबकी निगाह रहती है। यदि कोई स्थान निर्धारित न हो तब हम पदाधिकारी होने के नाते किसी की भी कुर्सी पर बैठ सकते है, यही धारणा है, हर कोई किसी की कुर्सी पर बैठ कर उस पर रोब ज़माने का प्रयास करते है, जिसकी कुर्सी पर वह बैठा है। यहीसे उसकी सोच की गणना शुरू हो जाती है। उसके बारे में  अंदाज शुरू हो जाता है, यदि यह सबआर्डिनेट के कुर्सी पर बैठ जाता है, ऐसा व्यक्ति कितना भी बड़ा महान क्यों न हो अपनी ओछी मानसिकता का परिचय दे ही  देता है?  भले ही इस मर्म को कोई न समझे किन्तु जानकार समझ कर उसके मन बुद्धि का आंकलन कर लेते है। कुर्सी पर बैठने वाला यह नहीं जानता कि कोई उसका आंकलन कर रहा है। कुर्सी पर बैठ कर रौब जमाना ऐसा अंधकार है जो सबको दर किनार कर देता है। कारपोरेट जगत के जानकार यही सब देखते है? एकादमिक करियर अब प्रासंगिक नहीं है? आपके विचार कैसे है, आपकी भाषा में कितना गाम्भीर्य है ? आप कितना अच्छा सवांद कर सकते है ? यही आंकलन जानकार करते है। यदि इसमें सफल है, तो वे आगे की बात करते है। जो रट-रट कर प्रावीण्य हासिल करते है। वे इस युग में कही के नहीं रहते। वे यह मानते है कि हर कर्मचारी के कुर्सी का एक स्वभाव है। उसीके अनुकूल स्वभाव वाला व्यक्ति उस कुर्सी पर बैठ कर न्याय कर सकता है। अपने अधिनस्थ के कुर्सी पर बैठकर क्या न्याय हो सकता है ? उस कुर्सी की सोच जैसा ही हम आचरण करते है,चिलाते है गुस्सा होते है, यह कुर्सी का ही करिश्मा है,विक्रमादित्य की कुर्सी पर बैठकर ग्वाला ही न्याय कर सकता है, यह उनकी कुर्सी की उर्जा है। उर्जा ही हमें बुद्धि देती है, हमें आचरण करना सिखाती है। यही वह कारण है कि हर कुर्सी हर किसी के लिये योग्य नहीं है? आपकी अपनी कुर्सी है, यदि यह नहीं है तब सामान्य जनो की कुर्सी पर बैठकर आप अपना व्यक्तित्व निखार सकते है। जो जिस कुर्सी पर बैठता है वही उस कुर्सी की उर्जा को ग्राह्य कर सकता है। अपनी कुर्सी को छोड़ किसी के कुर्सी पर बैठने से कभी सकारात्मक उर्जा नहीं आ सकती। जो जिस उर्जा की कुर्सी है उसी उर्जा वाले व्यक्ति को उस पर बैठकर, देश और समाज का भला कर सकता है, यदि हमारे उर्जा के अनुकूल कुर्सी नहीं मिले तब जन सामान्य के लिये निर्धारित कुर्सी पर बैठ कर ही अपनी बात कही जा सकती है। यह जरुरी नहीं कि डायस की कुर्सी पर बैठने वाला ही विद्वान होता है? कालिदास, बाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, और स्वामी रामदास तो कभी भी कुर्सी पर नहीं बैठे? आसन से उर्जा प्राप्त कर महान बने है, उच्च सिहासन पर बैठा व्यक्ति भी आज उनको नमन करने जाता है.  स्थल या आसन के सही आंकलन के कारण ही ये हमारे लिये पूजनीय हो गये है. कुर्सी से निकलने वाली उर्जा को ध्यान में रखकर जो उस पर बैठता है, वही इतिहास पुरुष बन जाता  है. कुर्सी को मोह त्यागकर उससे निकलने वाली उर्जा का जानकार ही हमेशा पूजा जाता है.

कद्रदान

कद्र हो तो कद्रदान मिल ही जाते है.
अक्ल हो तो अकलमंद भी मिल जाते है.
जो इनसे बेखबर रहता है.
उसके गधे भी इनके मेलो में बिक ही जाते है.

सोना --------



आदिकाल से सोने के अनेक कद्र दान है। आज भी स्थिति भिन्न नहीं है। हर महिला सोने के पीछे दीवानी है। पता नहीं ऐसा क्यों होता है। यह सत्य है इसीलिए इसकी हर कोई कद्र कर रहा है।  खरीद कर क्या कर रहे है ? घर में उनका स्त्री धन ही है। हर घर में इसका छोटा मोटा बैंक होने के बाद भी बैंक के पीछे घूम रहे है ? महिला किसी भी स्थिति में इसे खोना नहीं चाहती हर किमंत पर वह इसके पास रहता है ? भले ही परिवार इसके विरुद्ध कितनी भी राशी क्यों न गवा दे। यह धन ही उसकी सुरक्षा है ? पति की तुलना में सोना जादा सुरक्षित है, कही न कही अविश्वास की भावना है ? सोने ही विश्वास है। आज के युग में यह मानना कहा तक उचित है ? मेरे विचार से यह सही नहीं है। इसके कारण वह दर्द सहन करती है। सोने की गले की चेन झपटने वाले भले गला कांट दे , यह मंजूर है, काटने का दर्द भी सहन कर लेती है, किन्तु बेचने के नाम पर महिला कभी भी तैयार नहीं होती। अनेक प्रयास करो तब भी यह यह संभव नहीं है। गिरवी रखने की इजाजत भी यह नहीं देती है। कलह क्यों हो ? इसीलिए जैसी भी दशा है, व्यक्ति इसे हाथ भी नहीं लगाता है। जिस भी किमंत हो ,परिवार की लाज रखता है। इसके बदले कितना नुकसान सहन करता है किन्तु लक्ष्मी को कभी रुष्ट नहीं करता। पढ़े लिखे तो अपनी कठिन दशा में भी इसका जिक्र महिला से नहीं करते । एक दुसरे से सात जन्मो का साथ निभाने वालो का मन भेद सोने के कारण ही होता है । बात तलाक तक पहुच जाती है। महिला तलाक सहन करने को राजी है, सोने को छोड़ने के कतई तैयार नहीं। पढ़ी लिखी महिला भी यही आचरण करती है। क्या कहा जाये समझ के परे है। कुछ महिलाये अलग होती है, जो परिवार के लिए इस धन को छोड़ने को हमेशा तैयार रहती है,  रावण की पत्नी मन्दोदरी सोने की लंका की स्वामिनी होने के बाद भी आज भी प्रात: स्मरणीय है, वही सीता सोने के मृग के लिए हठ करती है। परिणाम हम जानते है, राम को रावण का वध करने की कथा ही रामायण है। इस रामायण से परिचित होने के बाद भी क्यों सोने से इतना मोह है ? शायद यही इनकी सुरक्षा है? हर कोई सुरक्षित रहना चाहता है। आज की महिलाये आर्थिक रूप से पुर्णतः सुरक्षित होने के बाद भी सोने से मोह नहीं छुटा पा रही है। यही वह कारण है जो सोने के अहम् को बढा रही है ? किसी ज़माने में 250/- तोला  आज तीस हज़ार के पार है। इसीका का उद्योग महिला करे तो जितना उनके पास है उससे कई गुना सुरक्षित हो सकती है। सोना खरीदने के बाद हमेशा के इसके लिए दरवाजे बंद करना ही क्या सोने की किमंत नहीं बढ़ा रहा है? महिलाओ को इसे बहार निकालकर उसका व्यापार करने से ही इस सोने का अहम् कम होगा ? लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं रहती वह चंचल है , क्या यह मर्म भी महिलाये नहीं समझ रही है ? विचारणीय प्रश्न है ? हर कोई इस प्रश्न पर विचार तो करता है किन्तु समाधान नहीं मिलता ?

अजब दुनिया है -----------------


अजब दुनिया है
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पता नहीं किन्तु अनुभव होता है यहा क्या क्या नहीं होता ? पढे लिखे लड़के कम तनख़ाह पर नौकरीकर रहे है। शिक्षा का आदर नहीं शोषण हो रहा है? जिनका बाप कमजोर होता है। वही यह दिन देखते है? ताकतवर बाप के सामने इन्हें कभी भी यह समस्या नहीं आती है । बाप का कर्तव्यशील रहना इन्हे भाता है। बाप ताकत है, जो इन्हे ऊर्जा देता है और माँ इनके सारे अवगुणो को छिपाकर अपने लाड्ले का गुणो का बखान करने से नहीं चूकती है । इसका यह दोष नहीं यही माँ की ममता है, सुना है हर बाप अपने बेटे की पराजय मे साथ रहता वही माँ सुख मे उनके साथ रहती है। ईश्वर का यही संतुलन है, इस संतुलन को हम ही बिगाड़ते है, बाप पराजय मे साथ न देने की स्थिति में न होते हुए भी उसे इसके लिए मजबूर किया जाता है, माँ ममता दिखाने की दशा में नहीं होते हुये भी उसे ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है। ये पेड़ के पके पत्ते है कभी भी गिर सकते है। इसका ज्ञान नहीं होने के कारण ही यह भ्रम पैदा हो रहा है, हम सब इसी मे जी रहे है। माँ बाप करेंगे इसीलिए हम कुछ नहीं कर रहे है, इसीकारण जहा ला कर रखा है वही है? इस रेखा को बढ़ाना ही आज की जरूरत है, ऊर्जा हीन व्यक्ति एक निश्चित तय सीमा तक जीवन को आगे ले जा सकता है, किन्तु इसके बाद रास्ता हमे ही तय करना है, इनका संचित हमारे ही काम आने वाला है, जो इसे मानता है वही आगे बढ़ता है, धीरु भाई और उनके लड़के इसका उदाहरण हो सकते है, यह संस्कार परिवार मे और शालाओ मे निश्चित दिया जाना चाहिए, माँ बाप की मेहनत उनका उपहार है, जागीर नहीं। किस्मत की लकीर को जैसे भी हो अपनी सूझ बुझ और मेहनत से आगे बढ़ाना ही आज के नवजवानों का दायित्व है।   WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COM

मै राजनिती हूँ ---------



मेरा यह अनुभव है कि किसी कोई समस्या बताओ? बिना सोचे समझे समाधान तुरंत झोली में डाल देता है ? समस्या ग्रस्त व्यक्ति इस समाधान को प्रश्न का हल मान लेता है। दर्द का उत्तर नहीं मिलने के कारण बेचारा राह देखता है। एक से कोई समाधान नहीं मिला इसलिए दूसरों से प्रश्न नहीं कहता है, भ्रम में जीता है। पता नहीं क्यों अनेक लोग यही चाहते है कि दूसरे भ्रम मे जीये। यही हो रहा जब भ्रम में होंगे तभी हम अपने मन की कर सकेंगे? यही आधुनिक सच है। राज नेता भी ऐसा ही कर रहे है। वे केवल आश्वासन दे रहे है ? मै यह कर दूँगा वह हो जायेगा? यही भाषण होता है? वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन इनके पास नहीं है, फिर इनके पास वह कोनसा जादू है जो ऐसा या वैसा करने क भाषण देते है, इनकी इसी मनमानी को नौकरशाह लगाम लगाती है.यही राजनीती मित्रों और परिवार में आ गयी है? इसके कारण हर भरोसेमंद व्यक्ति पीड़ित है, हम खुश रहे दूसरे पीड़ा झेलते रहे यही सिद्धांत चल रहा है। दूसरों की पीड़ा से ही हमारा संसार जगमगा रहा है, यही सोच आगे बढ़ रही है।  यह सोच अनंत नहीं नहीं है, इसका अंत है। किन्तु कोई अंत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। जैसा भी हो अपना जीवन सुखमय बना रहे है। यही गलती हो रही है। कही न कही समाधान देने वाला भी दुखी है, दिखाता है कि आपके कारण ही मै सुखी हूँ। फिर भी बहला रहा है। खुद भी दुविधा में है दूसरों को भी दुविधा में रख रहा है । अंत नहीं वर्तमान में जीने की आदत ने सच को सच कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। सच बोलने के प्रति हम कही न कही कमजोर हो रहे है,यह कमजोरी ही देश और समाज को नष्ट कर रही है। सीधा और सरल उपाय यह है कि हम जो नहीं कर सकते उसको करने की हामी क्यों भर रहे है यही राजनीत है, राजनिति हमारे समाज और परिवार का अंग हो चुकी है।यही राजनीती हमें कही क नहीं छोड़ रही है। WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COMमेरा यह अनुभव है कि किसी कोई समस्या बताओ? बिना सोचे समझे समाधान तुरंत झोली में डाल देता है ? समस्या ग्रस्त व्यक्ति इस समाधान को प्रश्न का हल मान लेता है। दर्द का उत्तर नहीं मिलने के कारण बेचारा राह देखता है। एक से कोई समाधान नहीं मिला इसलिए दूसरों से प्रश्न नहीं कहता है, भ्रम में जीता है। पता नहीं क्यों अनेक लोग यही चाहते है कि दूसरे भ्रम मे जीये। यही हो रहा जब भ्रम में होंगे तभी हम अपने मन की कर सकेंगे? यही आधुनिक सच है। राज नेता भी ऐसा ही कर रहे है। वे केवल आश्वासन दे रहे है ? मै यह कर दूँगा वह हो जायेगा? यही भाषण होता है? वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन इनके पास नहीं है, फिर इनके पास वह कोनसा जादू है जो ऐसा या वैसा करने क भाषण देते है, इनकी इसी मनमानी को नौकरशाह लगाम लगाती है.यही राजनीती मित्रों और परिवार में आ गयी है? इसके कारण हर भरोसेमंद व्यक्ति पीड़ित है, हम खुश रहे दूसरे पीड़ा झेलते रहे यही सिद्धांत चल रहा है। दूसरों की पीड़ा से ही हमारा संसार जगमगा रहा है, यही सोच आगे बढ़ रही है।  यह सोच अनंत नहीं नहीं है, इसका अंत है। किन्तु कोई अंत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। जैसा भी हो अपना जीवन सुखमय बना रहे है। यही गलती हो रही है। कही न कही समाधान देने वाला भी दुखी है, दिखाता है कि आपके कारण ही मै सुखी हूँ। फिर भी बहला रहा है। खुद भी दुविधा में है दूसरों को भी दुविधा में रख रहा है । अंत नहीं वर्तमान में जीने की आदत ने सच को सच कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। सच बोलने के प्रति हम कही न कही कमजोर हो रहे है,यह कमजोरी ही देश और समाज को नष्ट कर रही है। सीधा और सरल उपाय यह है कि हम जो नहीं कर सकते उसको करने की हामी क्यों भर रहे है यही राजनीत है, राजनिति हमारे समाज और परिवार का अंग हो चुकी है।यही राजनीती हमें कही क नहीं छोड़ रही है। WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COM

जंग ----


जंग
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तपश्या इतनी गहरी हो, हो कि विरोधी भी सोचे कि प्रयत्क्ष में विरोध करना चाहिए या नहीं ? यदि यह सात्विक है तो सामने कोई विरोध नहीं करेगा. किन्तु यह पीठे पीछे जरुर छुरा घोपेगा. यही तपस्या अनेको दुश्मनों को पैदा करती है. दुश्मन भी ता
क में रहते है कि कब मौका मिले और इसको लम्बा करे?जीवन का यही अंग है.यह अनहोनी ही हमेशा दिशा भ्रम करती है. वास्तव में जो आपके सामने कुछ कर पाते है, वही कुछ करने के लिये पीछे के दरवाजा खोजते है. युध्द का नियम है, जो आमने सामने युध्द नहीं कर सकता. वह या तो मैदान छोड़ देता है या परास्त करता है. किन्तु उत्तम योध्दा कभी पीछे से वार नहीं करता. यही हमने गीता और रामायण में पढ़ा है. आज हम इन नियमों को क्यों भूल गये है, जो आमना सामना नहीं कर सकता. उसे पीछे से वार करने की जरुरत नहीं होना चाहिए, यह एक सामान्य सा नियम है. हारा योध्दा है. यही योध्दा हमेशा हार स्वीकारता है, किन्तु आज के विचार से परास्त करना ही उसका उदेश्य बचा है. येनकेन प्रकारेन हम यह युध्द जितना चाहते है. भले पीठ पीछे छुरा घोपे. यही जीवन का मकसद बन गया है. योध्द्या का संस्कार छोडकर कर, योध्द्या को शर्मसार कर रहे है. अनेक सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में यही हो रहा है. सामने कोई नहीं बोलता किन्तु पीठ पीछे अपनी लकीर को बड़ा करने का उपक्रम चल रहा है, योध्दा नहीं कायर जंग जी
त रहे है,ताकत के भरोसे नहीं वरन उस ताकत का उपयोग करते है,जो कायर से अपेक्षा की जाती है. यही वह वजह है हर जगह योध्दा मात खारहा है. निर्णायक भी उसे ही जीता करार दे रहे है. निर्णायक जो आगे आयेगा उसे ही जीता मानते है, युध्द की रणनीति से वे भी परिचित नहीं है.वास्तविकता यह है कि आज क जंग योध्दा यही कायर लड़ रहे है. उन्हें जंग जीतने के लिये प्रेरित भी हम ही कर रहे है, इसी जीत का जश्न भी मना रहे है? इसी कारण जीत के जो परिणाम जो आना चाहिए वह नहीं आरहे है? जीते या जंग हारे यही भ्रम है? इसी भ्रम में अपना भविष्य निर्धारित कर रहे है. भ्रम हमेशा ही कन्फ्यूजन की स्थिति पैदा करता. आज यही स्वीकार्य है.

Saturday 17 November 2012

ध्येयवान -----------



हर व्यक्ति अपना लक्ष्य बनाता है, उसी लक्ष्य को पाकर वह दम लेता है, अर्जुन ने भी भगवान कृष्ण के सहारे अपने लक्ष्य को निर्धारित किया। हनुमान की रामभक्ति भी इसी का नमूना है.आज भी उस भक्ति को एक सेवक के तौर पर याद किया जाता है,हर कठिन समय में हम राम बनकर हनुमान जी से अपनी रक्षा की कामना करने पर ही वे कामना पूर्ण करते है, व्यवासयिक युग में हर कोई व्यावसायिक बनकर अपने को आगे करने के लिये जी जान लगा रहे है, यह निश्चित है यह युग जीत रहा है, इसका एक मात्र कारण हमारी कमजोरी है, अलग अनुभव आते है, हर किसी के पास तुरंत समाधान के लिये जाते, पता नहीं ये हमारी समस्या का समाधान कर रहे है, या नहीं,हमारी निष्ठा को धोका खा रही है, हमेशा हमें इस आंकलन में हमें मुह की खानी पड़ती है, स्वामी विवेकानंद ने अपने उदेश्य प्राप्ति के लिये जीवन लगाकर सांसारिक जीवन का मोह त्यागकर एक अनूठा उदाहरण अपने लक्ष्य के बारे में रूप प्रस्तुत किया है। आज भी वे प्रात:स्मरणीय है,इनको सुबह याद करने भर से जीवन का हर दिन उर्जात्मक हो जाता है, धन्य है ईश्वर आपने हमें जीने का सहारा तो दिया। अनेक लोग लोग अपनी उर्जा को भूल रहे है, जिनको सुबह याद करना चाहिए उन्हें भूलकर कही न कही हम अपनी उर्जा खो रहे है? मान अपमान की बात खोज रहे है, यह एक अपनी दशा को दिखाने वाला युग है, जो अपनी कूबत दिखायेगा वही सर्वमान्य होता है, भले उसमे हनुमान की ताकत न हो, अर्जुन जैसा लक्ष्य न हो, विवेकानंद जैस गाम्भीर्य न हो ? उनके जैसा पराक्रम न हो, फिर भी धन के बदोलत वह पूजे जा रहे है, यह उनकी तपस्या हो सकती है, हमारी नहीं । ऐसे लोगो की तपस्या स्वार्थ युक्त होती है, जब चाहे तब यु टर्न ले लेती है, हमेशा अपने मन की ही करते है। अनेक लोग इसके शिकार हुए है । इसके बाद भी चेतना नहीं आयी है? यह हमारी कमजोरी है, इसी का लाभ ये लोग ले रहे क्योकि हमारा कोई उदयेश नहीं, नहीं इसके प्रति हम गंभीर है? प्रासंगिक बाला साहेब ठाकरे है, उन्हें जो उचित लगता था किया, जिसको जो बोलना चाहिए था बोला, अपने दम पर मुंबई को नचाया, जिस नेता चाहे को बुलाया, अपनी बात मनवा ली, ऐसा व्यक्ति उदेश्य को साथ लेकर चलता है, जो महाराष्ट्र की विषय वस्तु थी देश की विषय वस्तु बन गयी, इनके निधन पर हर राजनीती करने वाला व्यक्ति इन्हें अपने आदर्श बता रहा है, पारदर्शी थे,जो कुछ करते थे बता देते थे? चाहे बियर पीने का मामला हो, या अयोध्या के ढाचे को को गिराने का? शेर की तरह अपनी बात बताई। उनके अनुयायी कैसा बर्ताव कर रहे है, इसीमे ठाकरे चुके, आज शिवसेना में व्यवसायिक तत्व आगये है । शायद यह ठाकरे की भूल थी,अनुशासन कायम नहीं कर पाए. ऐसा व्यक्ति बनने के लिये हमेशा अपने ध्येय के प्रति समर्पित होना जरुरी है, ध्येय के साथ और कोई बात नहीं चल सकती, इसे प्राप्त करने के लिये तपस्या की जरुरत है, यह हमें करनी चाहिए, ठाकरे ने कभी दुश्मनों की परवाह नहीं की उन्हें अपने ढंग उन्हें जीने का अवसर दिया और अपने तरीके से परास्त किया, आज भी वे दुश्मनी के काबिल नहीं है। जीवन के गुण चाहे जिससे मिले उसे ग्रहण करने में कोई सकुचाहट नहीं होनी चाहिए ? भगवान राम ने लक्ष्मण को मरणावस्था में रावण के पास भेज कर यह सन्देश दिया है कि दुश्मन भी सीख दे सकते है। हमारा जीवन पारदर्शी हो, ध्येय से न भटके, अपनी बात बेबाक कहे, दुश्मनों की परवाह न करे। दुश्मनों से भी सीखे, भले ही उदेश्य छोटा हो उसे पाकर रहने में ही जीवन की सार्थकता है। जीवन की लम्बाई में नहीं उसके ध्येय प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है, भले ही जीवन छोटा क्यों न हो जाये।
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Thursday 1 November 2012

विचारों का द्वन्द
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आज़ कल यह देखने मे आता है कि कोई पिता अपने बेटे से परेशान है, कोई बेटा पिता से परेशान है, यही परेशानी आर्थिक नहीं किन्तु वैचारिक है, बेटा जब छोटा होता है, तब वह विचार शून्य होता है, माँ बाप ही उसके विचार होते है, जब वह आत्म निर्भर हो जाता है, तब उसे विचार आते है, और इन्ही विचारो को सब माने यह उसका आग्रह होता है, जबकि पिता के विचार अब उसे अप्रासंगिक लगते है, यही दोनों के अहम का कारण भी बनता है, पिता को भी उनके पिता के साथ ऐसा अनुभव हुआ होगा, पिता ने कई सालो तक अपने विचारो की सरिता परिवार मे बहाई है, अब बेटे को अपनी सरिता बहाने का अवसर देना क्या उचित नहीं, उसके गलत विचारो को ठीक किया जा सकता है,  www.humaramadhyapradesh.com

Sunday 28 October 2012

विहिनी ची पंगत -------------------


महाराष्ट्रियन  शादी में " विहिनी ची पंगत " एक महत्व पूर्ण समारोह होता है. एक मायने में पूरी शादी का समापन समारोह यही  होता है, शादी का यह कार्यक्रम लड़के की माँ के लिए होता है, जो लड़की वालो की समधन है, नाना प्रकार के मिष्टान के साथ करेले का बेला इस पगंत का खास मेहमान होता है, विहीन को पंगत में पहुचने के लिए जाने वाले रास्ते को फूलो से बनाया जाता है. रास्ते के अंत में विहीन के पैर धोये जाते है. इन सब के बाद अपने करीबियों के साथ विहीन लड़के और बहु के बीच में बैठकर भोजन की शुरुवात करती है. पंगत को मजेदार बनाने के लिए एक दुसरे से पति और पत्नी के नाम लेने के लिए उखानो का आग्रह होता है.उन उखानो से कुछ मिनटों की पगंत घटो के बदल जाती है, इसकी तैयारी के लिए वधु पक्ष के लोग भारी मेहनत कर विहीन को प्रसन्न रखने का उपक्रम करते है. इस पक्ष के लोग इस पगंत में कही कोई कमी न हो इसका ध्यान रखने के लिए पुरे समय स्वयं सेवक की भूमिका निभाते है. भोजन के अंत में दूध से विहीन के हाथ धुलाये जाते है, और चांदी की लौग से सत्कार किया जाता है. इस महत्व पूर्ण पगंत के बाद ही वधु पक्ष  भोजन करता  है. प्रश्न यह है कि यदि वधु पक्ष के लिए वर की माँ यदि विहीन है तब वर पक्ष के लिए वधु की माँ भी तो समधन होती है, समधनो की सामूहिक पंगत और वर की माँ जैसा सत्कार वधु की माँ का क्यों नहीं किया जाता. यदि ऐसा किया जाय तो यह पंगत और आनन्द दायक के साथ समय की भी बचत हो सकती है. चांदी की लौंग और दूध से हाथ धुलाना आज प्रासंगिक नहीं है. 
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Wednesday 24 October 2012

रावण की पीड़ा -------------------



आज विजया दशमी है. असत्य पर सत्य की विजय के रूप में हम इसे मनाते है. अनेक लोग असत्य और बुराई के प्रतिक रावण का दहन कर आतिश बाजियों का प्रदर्शन कर अपने वैभव को दिखाते है, भले ही यह वैभव चंदे के रूप में एकत्रि
त किया गया हो, इस निर्जीव रावण को मारने के लिये अनेक ख्यातिनाम समाज सेवी, राजनेता और प्रभाव शाली लोग समारोह के मुख्य अथिति बनकर रावण का दहन करने का सौभाग्य प्राप्त करते है ? ऐसे महानुभाव के चयन के लिये कोई मापदंड नहीं है , इस कारण हो सकता है, रावण का दहन करने वाली विभूति के आचरण के सामने रावण का व्यवहार भी शर्मिंदा होता हो. यह सब हम इसी दिन कर फिर से एक साल के लिये रावण को भूलकर रावण जैसा आचरण क्या नहीं करते ? रावण जैसा ज्ञानी, महान ज्योतिषी और शिवभक्त ऐसे हाथो से मरने को मजबूर है, जो इनकी तुच्छ विद्वता को ही स्वीकार करते हुए मर जाता है, क्योकि वह निर्जीव है, यदि जीवित होता तो क्या ये तथाकथित महानुभाव इसे मार सकते है ? दशानन के सामने एक सर वाला कहा लगता है , विडम्बना यही है . इतिहास में झाके तो हमें रावण से भी अधिक बुराई वाले खल नायक मिल जायेंगे. मामा शकुनी के षड्यंत्र से सभी परिचित है ? कंस को कोन नहीं जानता ? प्रह्लाद के पिता तो होली में ही याद आते है ? द्रोपदी का चीरहरण करने वाला और इसके साक्षी क्या क्षमा योग्य हो गये है ? लगता है रावण को यह सब खलता होगा और वह यह भी सोचता होगा कि इतने बड़े खलनायकों के होते हुए भी मै महाखलनायक कैसे बन गया . रावण के लिये यह विचारणीय प्रश्न हो सकता है. उसकी योग्यता की कोई उपयोगिता नहीं किन्तु उसकी गलतियों के आकार को बड़ा बनाकर उसे महा खलनायक बनाने का यह उपक्रम शायद ही उसे रास आता हो. क्या ऐसा ही उपक्रम हम अपने प्रतिद्वंदियों के आज नहीं कर रहे है ? यदि ऐसा है तब रावण से बड़े खलनायक हमें इस संसार में खोजने का प्रयास नहीं करना पड़ेगा. आज भी मध्यप्रदेश के मंदसोर शहर में रावण को मारने से पहले उससे क्षमा याचना करने की परम्परा विधमान है . यह एक विषय है जिसे मैंने अपनी द्रष्टि से देखा है. सबके अपने विचार हो सकते है.

Sunday 21 October 2012

कारोबार -------



जगल का राजा शेर काला था. वह अपने खास मंत्री के लिये काले मुह वाला सियार की खोज में था, काफी खोज के बाद यह सियार मिल गया. अब मंत्री और राजा काले मुह वाले जानवर की फौज बनाना चाहते थे. इसके लिये बकायदा विज्ञापन भी दिया गया. आवेदन भी आये, साक्षात्कार भी हुआ. अनेक काले मुह और राजा की भाषा  से परिचित जानवरों का चयन भी हो गया. राजा और मंत्री खुश थे कि उनके जमात के जानवर उन्हें मिल गये थे. किन्तु इस जमात में ऐसे भी जानवर थे जो राजा की भाषा से न तो परिचित थे और नाही वे इनके व्यवहार को जानते थे. राजा के लिए यह अच्छी बात थी. सभी गोपनीय व्यवहार का विचार अपनी भाषा में ही करते थे. उनका व्यवहार किसी और के समझ में ना आये इसकी वे हमेशा सावधानी बरतते थे. इनका कारोबार उस आबादी में था जिसकी बोली भाषा राजा की बोली से भिन्न थी, आचार व्यवहार में भी फर्क था. फिर भी राजा का कारोबार चल रहा था. किन्तु राज्य के अन्य जानवर राजा और उनके सहयोगी के व्यवहार से खुश नहीं थे. इन्हें लगता था कि ये सब अपनी  भाषा में उनकी बुराई कर रहे है.असंतोष धीरे धीरे बढ़ने लगा. और उस राज्य के संगठित लोगो ने कारोबार में असहयोग शुरू कर दिया और एक  दिन राजा के कारोबार को छोड़ दिया. राजा के पास काम करने वाले जानवर कम होने के कारण उसे अपना कारोबार बंद करना पड़ा, सियार मंत्री होशियार था, उसने उस प्रदेश भाषा और व्यवहार को आत्मसात कर लिया था, अब मंत्री और राजा के चयनित नौकरों ने राजा का वध कर उसके कारोबार को उस प्रदेश के जानवरों को हिस्सेदार बनाकर फिर शुरू कर दिया.आज यह कारोबार चरम पर है. जिस जगह कारोबार हो उस स्थान के व्यक्तियों के सहयोग से ही मनुष्य उन्नति कर सकता है.
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भगवान की कृपा है ------------------------------------------------



हमें यह सिखाया जाता है कि सत्य की राह चलो, इस राह पर चलने वाला व्यक्ति परेशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं. जीत इसी राह चलने वाले व्यक्ति की होनी है, चाहे कुछ भी क्यों न ह

ो जाए. यह धर्म आधारित है. राम और कृष्ण भी इसी राह पर चले परेशान हुए फिर विजय श्री इन्होने ही हासिल की. इसी व्याक्य का प्रयोग आज अनेको कार्यालयों में हो रहा है. बड़े बड़े इस व्याक्य के अक्षर पढने में सुहाने लगते है. परन्तु सतही धरातल पर परिणाम शून्य है. कल मै बैतूल से भोपाल आ रहा था. आरक्षण था, सूची में नाम नहीं होने के कारण इसकी जानकारी लेने रेल के समन्धित आफिस में गया, वाह बैठे साहब से मैंने अपनी व्यथा बताई, उन्होंने पूछा आपने आरक्षण कहा से कराया मै कहा सर बैतूल से , उन्होंने कहा टिकिट दिखाओ मैंने उन्हें टिकिट दिखाया , वे बोले ये नेट का टिकिट है, इसलिए सूची में नाम नहीं है, गाड़ी के टीटी के पास इसकी जानकारी होगी, जब मै लौट रहा था तब इस धर्म आधारित व्याक्य पर नजर पड़ी मैने साहब से पूछा सर इस व्याक्य का क्या अर्थ है, वे थोड़े सकुचाये और फिर मुस्कराकर कर बोले यह सत्य है कि आपका आरक्षण है, आपको बर्थ भी मिलनी है. किन्तु आप परेशान है. हम इसी परेशानी का कारोबार करते है. सत्य की परेशानी और सत्य के पराजित में जो अवधि है, यही अवधि हमारे व्यापार के लिए महत्व पूर्ण घटक है, रेल में सब कम्प्यूटर के भरोसे होने के कारण, हमारे पेट पर जम कर लात पड़ी है, लेकिन आदत ज्यो की त्यों है, इसलिए छोटी छोटी बातो में से व्यवसाय का रास्ता निकल ही जाता है. भगवान की कृपा जो है. सभी सरकारी दफ्तरों में नीति वाक्यों की भरमार है. किन्तु इन्ही में से कुछ अपना व्यापार आज भी चला रहे है. गांधीजी के दर्शन कराने की सुचना देने मात्र से बड़े बड़े काम आसन हो जाते है. ऐसा सूचित करने की भी अब जरुरत नहीं है. हर दफ्तर में गांधीजी की फोटो लगी है, इस तस्वीर की और आपका इशारा ही काफी है. जय जय श्रीराम

Monday 15 October 2012


परस्पर अविश्वास
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परस्पर आज एक दुसरे को शंका की द्रष्टि से देखते है, हँसते बोलते है, लेकिन मन में कुछ और चल रहा होता है. कार्य स्थल पर भी इससे स्थिति भिन्न नहीं है, हर व्यक्ति अविश्वास की भावना से ग्रस्त है. कब कौन कोनसा व
ार करेगा यही चिंता का विषय है. दुश्मनों से सावधान तो रहते है किन्तु दोस्तों का भय भी सता रहा होता है. मेहमानों का स्वागत तो करते है किन्तु किंमती सामान ताले में रख दिया जाता है. हर क्षेत्र में यही स्थिति है. व्यक्ति आज सुरक्षा के बदले असुरक्षा के घेरे में जादा है, सबकी नियत में खोट है, यह सब क्यों हो रहा है ? यही चिंता का विषय है. मुझे लगता है बचपन में संस्कारो की कमी से यह हो रहा है. जो माँ संस्कार देने वाली है , उसे संस्कारो से परिचित नहीं कराया गया, यदि परिचय हुआ भी है तो कान्वेंटी संस्कृति में यह समां गया ? माँ का आचल अब कहा मिलने वाला है. परिधान बदल गए है, जिस माँ पर घर और बेटो की जिन्दगी सवारने का दायित्व है, वह आज आर्थिक बोझ को कम करने में जुटी है. बच्चो की परवरिश झुला घर में हो रही है , संस्कार कहा से आयेंगे. बड़े बड़े कान्वेंटी स्कुल खुल गए है, भरी भरकम फ़ीस ली जा रही है, फिर भी नैतिक शिक्षा का नाम नहीं है. आज के स्कुलो में संस्कारो के लिए नैतिक शिक्षा जरुरी हो गयी है. बड़े बड़े जन सेवा से जुटे संघटन के कर्तव्यो के विषय में यह विषय नहीं है. सप्ताह में एक दिन भी इस शिक्षा के लिए आयोजन किया जाय तो बड़ा परिवर्तन आने में देर नहीं लगने वाली है ? सबका इस और प्रयास देश और समाज के आवश्यक है. सोचे आगे बढे कुछ तो परिवर्तन आएगा.

Sunday 30 September 2012


दामाद
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दामाद कहने से "मान" की वह मूर्ति सामने आजाती है. जिसे मनाने और उसकी जिद्द पूरी करने में जीवन व्यतीत हो जाता है. जीवन की अंतिम बेला में भी दामाद पीछा नहीं छोड़ता, कोई भी समारोह हो उन्हें निमंत्रित करने उनके घर जाने पर ही वे सम
ारोह में उपस्थित होते है, संचार क्रांति का यह युग उनके लिए बेमानी है. भले ही इस युग के वे ज्ञाता हो लेकिन ससुराल पक्ष को इस तंत्र से दुरी रखने के लिए यह प्रजाति नाना विध प्रयास करती है. बहार वे इस तंत्र की हिमायती है, किन्तु इस तंत्र का निमंत्रण उन्हें स्वीकार नहीं. प्रत्यक्ष निमंत्रण को ही यह जाती स्वीकार करती है. यदि ऐसा नहीं हुआ तो न स्वयं तो नहीं आयेंगे अपनी पत्नी को भी नहीं आने देंगे. बेहद अद्भुत व्यक्तित्व के धनी है, यह प्रजाति. आपसे कही चुक हो गयी तो यह तब तक नहीं मानते जब तक कि नाँक नहीं रगड वा लेते, पता नहीं ऐसा करवाने में क्या मजा आता है. छोटी छोटी बातो का ताड़ बनाना इन्हें बखूबी आता है. ये उम्रदराज होने पर भी अपनी दामादगिरी नहीं छोड़ पाते. इस युग में भी क्या ? यह प्रासंगिक है, यह तब ठीक था, जब शिक्षा का स्तर काफी कम था ? आज यह प्रतिशत बढ़ गया है. दामाद पढे लिखे और समझदार है, ससुराल का इशारा समझने में सक्षम है. इसलिए दामाद के साथ परिवार की पृष्ठभूमि भी देखकर लड़की के योग्य वर का चुनाव किया जाता है ? फिर दो चार लड़की पति दामाद बन ही जाते है. दामाद को लड़के के बराबर का दर्जा है. इस तांत्रिक युग में भी २० किलोमीटर जाकर उन्हें निमंत्रित करना क्या संभव और उचित है ? क्या टेलीफ़ोन के माध्यम से की गयी अनुनय विनय पर्याप्त नहीं है ? क्या हमारा ससुराल पक्ष की कठिनाई जानने का दायरा क्या कम नहीं हो रहा है ? हो सकता है कि ससुराल पक्ष के सवांद में कुछ कमी हो तो क्या उसे सुधारने की जिम्मेदारी इन दामाद रूपी लडको की नहीं है ? ससुराल पक्ष को नीचा दिखाना से इनकी कामना पूरी हो जाती है ? यदि ऐसा है तब यह दुखद है, ससुराल पक्ष भी क्या उसके परिवार में शामिल नहीं है. अपने घर के समारोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना यदि इनका कर्तव्य में शामिल है तब ससुराल पक्ष के समारोह में कोई भी बहाना बनाकर उससे दुरी रखना इस पक्ष को क्या दुखी करना नहीं है ? आज भी ऐसा ही रहा है, परिवार का कोई भी दामाद रुष्ट हो जाता है, तब परिवार के सदस्य परिवार के मुखिया को इतना जलील करते है कि मुखिया को लगता है, इससे तो मरना भला है. यदि यही नहीं रहेगा तब इनकी खातिरदारी कोन करेगा ? किस पर ये अपनी मनमानी करेंगे. विचारणीय प्रश्न है ?
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Saturday 29 September 2012

अपमान 
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सदानंद एक साधारण व्यक्ति था,अपना और परिवार का ख्याल ही उसे रहता था, अपने परिवार के लिए वह धनोपार्जन के लिए जीविका भी करता था, चूँकि कठिन मेहनतऔर विषय का ज्ञान नही होने के कारण जीविका को चलाने मे उसे भली बुरी सुनना पड़ता था, वह सुनता भी था. कभी कभी तो उसे बुरी तरह से अपमानित भी किया जाता था, जीविका से परिवार चल रहा है, यही बात उसे सब सहने को बाध्य करती थी, खैर जैसा भी हो परिवार चल रहा था, सदानंद और उसका परिवार एक रिश्तेदार के यहा किसी धार्मिक कार्यक्र्म मे गया, इस कार्यक्रम मे अनेक उसके परिचित भी आये थे. करीब के रिश्तेदार भी थे, आयोजन करता ने सबके रहने और खाने पीने की अच्छी व्यवस्था की थी, कोई भी रिश्तेदार नाखुश न हो, खुद सबका कुशल क्षेम पूछता और उनकी तकलीफों को दूर करता, आयोजन करता ने उनकी खातिरदारी की कोई कसर नहीं छोड़ी थी, सब आगंतुक प्रसन्न थे, सदानंद के साथ एक सहकर्मी जो दुसरे शहर में उसीके विभाग में नौकरी करता था, भी ठहरा हुआ था, यह सहकर्मी उसके बारे में सब जनता था, इसीलिए उसने सदानंद को कड़ी मेहनत और ध्यान से काम करने का परामर्श दिया, सदानंद को उसकी यह बात, रास नहीं आयी बल्कि उसे लगा उसका अपमान किया गया है, सदानंद जोर जोर से अपने अपमान की व्यथा कह रहा था, इस व्यथा ने कब झगडे का रूप धारण कर लिया तब पता चला जब आयोजन कर्ता वह आकर उससे क्षमा याचना करने लगा, क्षमा याचना से भी सदानंद का क्रोध शांत नहीं हुआ, सदानंद का सहकर्मी भी इस घटना से दुखी था. इस स्थान से जाने का साधन नहीं होने के बाद भी बिना अधूरे कार्यक्रम को छोडकर चला गया, सदानंद ने आयोजन कर्ता को अपने अपमान के लिए जिम्मेदार मानकर वह भी चला गया. आयोजन कर्ता के सारे प्रयास विफल हो गए, वह भी इस घटना से दुखी था. सदानंद ने हुए अपमान के इस रिश्तेदार से बातचित और व्यवहार सब बंद कर दिया कितु रिश्तेदार ने इस रिश्ते को जीवित रखने का प्रयास जारी रखा लेकिन सदानंद अपनी ही जिद पर अड़ा रहा, जो परायो का अपमान स्वार्थ के कारण सह सकता हो वह अपनों का परामर्श अपने हित में होने के बाद भी अपमान क्यों मानता है.
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Saturday 22 September 2012

बाप और बेटा ***************

जब वह छोटा था, पिता के विचारो से काफी प्रभावित था, उसके पिता बड़े ओहदे पर काम करते थे. जब वे गाड़ी में बैठते तब ड्राइवर उनके लिए पहले से दरवाजा खोल कर रखता अपने अफसर के प्रति चालक का यह सम्मान था, बेटे को पिता का यह सम्मान देखकर ख़ुशी होती थी. उसे लगता उसके पिता जी ज्ञानवान तो है ही अपने कर्म क्षेत्र में अपनी मीठी वाणी और मित्रवत व्यवहार के कारण उनके सहकर्मियों के मन वे श्रध्दा का स्थान रखते है. पिता भी कोई सोने का चमच ले कर पैदा नहीं हुए था . पशुवत मेहनत के बदोलत उसने यह पद पाया था. अपने कर्मठता के कारण ही परिवार में ही नहीं अपने कार्य क्षेत्र में ख्याति पायी थी. पिता के कहने से चलकर उसने भी बड़ी पढाई कर अच्छी नौकरी प्राप्त कर ली थी. अब उसको पिता के विचारो में प्रासंगिकता नहीं दिखती थी, जब बाप रिटायर हुआ, तब बेटे ने उनके विचारो में भारी बदलाव पाया. अब सलाह लेना तो दूर वह उन्हें सलाह देता था. बाप इसके विचारो से अपडेट होता था. इसीकारण उसके मित्रो में उसकी अलग पहिचान बन गयी थी. इसी वजह से बेटे के विचारो को वह गंभीरता से लेता था, किन्तु बेटे और उसकी पढ़ी लिखी पत्नी ने बाप के विचारो को महत्व देना छोड़ दिया. बेटा खुद सोचकर निर्णय लेता है , बाप खुश था, वह मानता था की निर्णय केवल निर्णय होता है. कभी गलत होता है कभी सटीक, वह भी तो गलत निर्णयों से सही निर्णय लेना सिखा है, इसीलिए बेटे के गलत निर्णय पर उसे कभी एतराज नहीं था ? उसे इस बात की भी फ़िक्र नहीं थी कि उसकी उपेक्षा हो रही है, वह सोचता था कुछ वर्षो बाद बेटे को भी इसी स्थिति से ही गुजरना है. बाप तो नहीं रहा लेकिन बेटा बाप जैसी उपेक्षा अपने बेटो से सह रहा है. w www.humaramadhyapradesh.com

Friday 14 September 2012

करण और जगन ****************



एक गाव में करण और जगन नाम के दो मित्र रहते थे, बचपन की मित्रता जरा अवस्था तक कायम रही, बचपन तो खेल में बीत गया, जवानी काम धंधे में व्यतीत हो गयी, इसलिए इन दोनों अवस्थाओ में केवल मित्रता रही जादा बातचीत नहीं हो सकी, जरा अवस्था एक ऐसी अवस्था जिसमे काम धंधा कम फुर्सत जादा रहती है, इसीकारण यह दोस्ती अब प्रगाड़ हो गयी,दोनों मंदिर में बैठकर आपस की बाते करते, करण कभी बहु का तो कभी बेटे के उसके प्रति व्यवहार से जगन को अवगत कराता, कभी नाती नत्रो के उसके विरुद्ध क्रिया कलापों को बताता, पत्नी से वह खुश नहीं था, जगन रोज उसकी बाते सुनता और मुस्कुरा देता, परिवार की निंदा करना करण का रोज का विषय था, जबकि जगन परिवार की नहीं देश प्रदेश में चल रही गतिविधियों पर जादा बोलता, कुल मिलाकर दोनों के बातचीत के विषय एकदम अलग अलग थे, एक दिन जब करण ने परिवार विषयक बाते शुरू की तब जगन ने उसे टोका और बोला किसी महान व्यक्ति ने कहा है, परिवार की बाते सार्वजानिक नहीं करना सदैव हितकारी होता है, तुम अपने परिवार से तो दुखी हो मेरे मन भी अपने परिवार के प्रति ग्लानी भर रहे हो, जानते हो करण मै सुखी क्यों हूँ , मैंने परिवार के किसी सदस्य से कभी कोई उम्मीद ही नहीं की, उम्मीद हमेशा दर्द देती है, इस उम्र में अब क्या उम्मीद करना, कन्धा दे या ना दे, शव दाह करे या फेंक दे, हमें क्या फर्क पड़ने वाला है ? हां जीते जी हमारा आशीर्वाद देने का काम तो हमसे कोई नहीं छीन सकता ? कोई काम तो परिवार ने हमें दिया है, यह क्या उनकी महानता नहीं है ? लोक लाज के डर से कभी कभार पूछ भी तो लेते है, आज के इस युग यह सब करना भी कठिन है, बेचारे करते तो है. भी किसी भी अपने घर के सदस्य से उम्मीद करना छोड़ दो, जिस तरीके से ईश्वर रखेगा वैसे ही रहने में हमारी भलाई है.
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Thursday 13 September 2012


सुख की नींद 
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किसान अपनी जमीन में मस्त है, जमीन ही उसकी माँ है, पिता भी वही है, पानी भी उसकी आस पूरी कर देता है, इस कारन २ बच्चो के परिवार को सुख से चला लेता है, अभी बच्चे छोटे है, खर्चा कम होने के कारण बचत कर लेता है. सोचता है बचत से बच्चो को पढ़ा लिखाकर काबिल इन्सान बना देगा, फिर बेटी की शादी कर एकलोते बेटे के सहारे जीवन कट जायेगा. बेटा बेटी बड़ी होने लगे उनकी शिक्षा की चिंता उसे सताने लगी, गाव में बड़े स्कुल नहीं होने के कारण शहर भेजना मज़बूरी हो गयी.  बेटा और बेटी के लिए उनके कालेज के पास ही एक मकान किराये पर ले दिया, गेहू दाल चावल खेत में पकते थे, वह भी पंहुचा दिया, कभी जाकर आटा पीसाकर सब्जी ला देता बेटी खाना बना लेती और भाई के साथ खाकर दोनों भाई बहन पढाई करने में जुट जाते, समय निकलने में देर नहीं लगती बेटा और बेटी दोनों इंजीनियर हो गए. अब बेटी की शादी सर पर थी, रूपवती बेटी होने के कारण पढ़ा लिखा वर भी मिल गया, बेटी की शादी में पैसे की कमी न पड़े इसीलिए एक एकड़ खेत भी बेच दिया, धूम धड़ाके  के साथ शादी भी हो गयी, बेटे की शादी भी अपनी ही बिरादरी की सुन्दर लड़की के साथ कर दी. किसान और उसकी पत्नी का शरीर भी जवाब देने लगा था. पहले जैसी मेहनत नहीं हो पा रही थी, रात में फसल की निगरानी के लिए बोरा बिछाकर सोना भी नहीं हो रहा था, पीठ में दर्द की शिकायत होने लगी थी फिर भी उसने अपना हमेशा का बिस्तर नहीं छोड़ा था. पत्नी ने कहा चलो कुछ दिन बेटे के यहाँ मुंबई जाकर रह लेते है. दोनों बेटे के यहाँ चले गए. बेटे का वैभव में अपनी तपस्या की पूर्णता को देखकर भगवान को धन्यवाद दिया. रात में बेटे ने उनके लिए बनाये एसी के कमरे में सुलाया, बिस्तर में फोम के गद्दों थे, जब किसान सोया तो वह बैचेन हो गया, रात भर नींद नहीं आयी इस करवट से उस करवट बदलने में सुबह हो गयी. बेटे को बुरा लगेगा इसीलिए नहीं बताया. आठ दस दिन बैचेनी में कटे, पत्नी को पीड़ा बतायी, पत्नी ने बेटे से कहा बेटा पिता जी का बिस्तर बहार वरांडे में लगा दो और पलंग पर ३-४ बोरे का  गदा बना दो. बेटे ने कहा माँ ऐसे कैसे होगा, माँ ने कहा बेटा जो आदमी जिन्दगी भर खुली हवा में बोरो पर सोया हो, वह एसी में फोम के गद्दे पर कैसे सो सकता है ? वरांडे पर लगाये बिस्तर पर किसान इतनी गहरी नींद में सोया, जब आंख खुली तब सुबह के सात बजे थे. पत्नी से कहा आज सुख की नींद सोया.
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Wednesday 22 August 2012

जीवन *****

जिन्दगी भी अजिब पहली है, सब जानते हुए भी धोखा खाते है, एक दूसरे को पछाड़ने में जीवन दाव पर लगा देते है, झूट सच का सहारा लेकर आगे बढ़ना चाहते है. बच्चे बाप को धोखा देते है. फिर भी सबको अपने बच्चे प्यारे है. माँ चाहते हुए भी उनका सबक नहीं सिखाना चाहती है. यही सर्कस है. यहाँ जोकर भी मिलते है. विदूषक भी यही है. एक पढ़ लिख गया, दूसरों को जलने की जगह यही है.उसका सब कुछ ठीक हो गया मेरा क्यू नहीं हुआ इसी पर चिंतन जारी है, मंथन भी यही होता है. उसकी लकीर कैसे छोटी की जाये यही नतीजा है. वो मुझसे पहले क्यू मरा यही सोच का विषय है ? बहु सास से क्यू झगडा नहीं करती यही यक्ष प्रश्न है. समझोते होते है. टूट जाते है ? टूटने की न इसको चिंता है न उसको. सबके लिये माँ बाप जिम्मेदार है. वादे यही किये जाते है. टूटते भी यही है. मेहनत कश जिन्दगी भर मेहनत करता है. चापलूस बाज़ी मार ले जाते है.दुःख तो सबको होता है किन्तु कोई आगे नहीं आना चाहता. कोई देता है हज़ार लोग मांगने वाले है. किसको दे किसको न दे यही सवाल यहाँ खड़ा होता है. जिसको मिल गया वही आँखे  तरेरता है. जिसका भला करो वही बुरा चाहता है. पति पत्नि मे क्यू झगडा हुआ ? उतर सब चाहते है. एक चोट खाया दूसरा हँसता है. रोंग साईड हम है, सही चलने वाले को गाली यही दी जाती है ? कोन अपना कोन पराया है ? यही पहचान नहीं होती है. अपना ही करतूत कर जाता है तब दुश्मन की याद आती है. "अगर सभी अपने तो बेगाने कहा जाते "गीत भी यही गाया  जाता है. नीव के पत्थर की कोई किमंत नहीं कलश यही पूजा जाता है. हम से कोई बड़ा नहीं यही प्रयास होता है.इंसान इंसान के खून की आंखरी बूंद यही चुसी जाती   है. किराये की खोक, दुसरे माँ बाप भी मिल जाते है, कृष्ण और कंस यही है. रावण, राम यही मिलते, पाप पुन्य की नगरी यही है, नास्तिक और आस्तिक यही बसते है, कर्म अकर्म, स्वर्ग- नरक यही है, भ्रष्टाचार भी यही होता लिपा पोता भी यही जाता है. बेटियों के साथ दुराचार और इनका कन्या दान भी यही होता. माँ - बाप उपेक्षित है तो श्रवन कुमार भी यही है. सत्यवान और सावित्री यही बसते है, पति पत्नी एक दुसरो को धोका भी यही देते है. जाने का गम और आने की ख़ुशी भी यही होती है. कमाल की यह जिन्दगी है , खट्टे मीठे अनुभव के साथ गुजरती है.  www.humaramadhyapradesh.com

Tuesday 21 August 2012

शामू एक उदासीन मुखिया -------------------------------


रामलाल


अनेको के अनेक स्वभाव होते है. रामलाल का भी अपना स्वभाव था पत्नी उसके साथ रहती थी . बाल बच्चो के सुख से वंचित था . इसे वह पूर्व जन्म का फल मानता है. अपनी खेती बाड़ी को अपनी संतान समझता है. नजदीकी रिश्तेदार भी कोई नहीं है. गाँव वाले ही रिश्तेदार है. गाँव के बच्चे ही उसके बच्चे है. गाँव में किसी के यहाँ कुछ भी हो जाये रामलाल पहले पहुचता था. सुख की घडी में वह ख़ुशी में शामिल होता वही दुःख की घडी में कंधे से कंधा मिलाकर दौड़ धुप करता था . यहाँ तक कि गाठ के पैसे लगाने से भी नहीं चुकता था . लगाये गए पैसे कभी वापिस नहीं लेता. किसी के मृत्यु पर सब सामान वही लाता,कपाल क्रिया होने के बाद ही वापिस लोटता था . ऐसा करना रामलाल के लिए पुन्य का काम था . बच्चियों की शादी में खुद ही आगे बढ़कर भाग लेता था . उसको जरुरी सामान का दहेज भी वही देता था . कुल मिलाकर परोपकारी जीव था. एक दिन अचानक समय बदला और रामलाल के पास का धन चोर उड़ाकर ले गए. धन की कमी के कारण परोपकार का धर्म नहीं निभा पा रहा था. इस धर्म को सतत चलायमान रखने के लिए उसे अपनी खेती भी बेच
 दी. इससे मिले पैसो से ही वह अपना गुजारा और परोपकार का काम करता था. यह धन भी जादा दिन नहीं चला. कुछ दिन बाद रामलाल की पत्नी चल बसी उसके अन्त्य संस्कार के लिए भी पैसे नहीं थे गाववाले कोई सामने नहीं आये. जिले की एक संस्था ने अन्त्य कर्म किया. रामलाल का भी मृत्यु के बाद यही हाल हुआ. गाववाले कहते सुने गए कि हमने किसी काम के लिए रामलाल से नहीं कहा था. रामलाल का शौक था उसने किया. रामलाल ने हमारा साथ दिया जरुरी नहीं कि हम भी उसका साथ दे. रामलाल की आत्मा ने गरज कर कहा गाव वालो मै आपके अब काम नहीं आ सकुंगा मुझे क्षमा करना. मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं कि मेरा अन्त्य कर्म लावारिश लाश जैसा हुआ. मै जानता हूँ कि वारिस शव और लावारिश शव दोनों को जलकर पंच तत्व में मिलना होता है. इसलिए लावारिश लाश की तरह जलने में मुझे कोई दुःख नहीं हुआ. मेरा शरीर भी पंच तत्व में ही मिला, यदि मुझे कोई साथ देता तब मेरी की सेवा निस्वार्थ नहीं कहलाती और आप सब मुझे परोपकारी नहीं कहते है. आपके इस ऋण के लिए आभारी हूँ. परोपकारी का हश्र यही होता है.