दामाद
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दामाद कहने से "मान" की वह मूर्ति सामने आजाती है. जिसे मनाने और उसकी जिद्द पूरी करने में जीवन व्यतीत हो जाता है. जीवन की अंतिम बेला में भी दामाद पीछा नहीं छोड़ता, कोई भी समारोह हो उन्हें निमंत्रित करने उनके घर जाने पर ही वे सम
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दामाद कहने से "मान" की वह मूर्ति सामने आजाती है. जिसे मनाने और उसकी जिद्द पूरी करने में जीवन व्यतीत हो जाता है. जीवन की अंतिम बेला में भी दामाद पीछा नहीं छोड़ता, कोई भी समारोह हो उन्हें निमंत्रित करने उनके घर जाने पर ही वे सम
ारोह में उपस्थित होते है, संचार क्रांति का यह युग उनके लिए बेमानी है. भले ही इस युग के वे ज्ञाता हो लेकिन ससुराल पक्ष को इस तंत्र से दुरी रखने के लिए यह प्रजाति नाना विध प्रयास करती है. बहार वे इस तंत्र की हिमायती है, किन्तु इस तंत्र का निमंत्रण उन्हें स्वीकार नहीं. प्रत्यक्ष निमंत्रण को ही यह जाती स्वीकार करती है. यदि ऐसा नहीं हुआ तो न स्वयं तो नहीं आयेंगे अपनी पत्नी को भी नहीं आने देंगे. बेहद अद्भुत व्यक्तित्व के धनी है, यह प्रजाति. आपसे कही चुक हो गयी तो यह तब तक नहीं मानते जब तक कि नाँक नहीं रगड वा लेते, पता नहीं ऐसा करवाने में क्या मजा आता है. छोटी छोटी बातो का ताड़ बनाना इन्हें बखूबी आता है. ये उम्रदराज होने पर भी अपनी दामादगिरी नहीं छोड़ पाते. इस युग में भी क्या ? यह प्रासंगिक है, यह तब ठीक था, जब शिक्षा का स्तर काफी कम था ? आज यह प्रतिशत बढ़ गया है. दामाद पढे लिखे और समझदार है, ससुराल का इशारा समझने में सक्षम है. इसलिए दामाद के साथ परिवार की पृष्ठभूमि भी देखकर लड़की के योग्य वर का चुनाव किया जाता है ? फिर दो चार लड़की पति दामाद बन ही जाते है. दामाद को लड़के के बराबर का दर्जा है. इस तांत्रिक युग में भी २० किलोमीटर जाकर उन्हें निमंत्रित करना क्या संभव और उचित है ? क्या टेलीफ़ोन के माध्यम से की गयी अनुनय विनय पर्याप्त नहीं है ? क्या हमारा ससुराल पक्ष की कठिनाई जानने का दायरा क्या कम नहीं हो रहा है ? हो सकता है कि ससुराल पक्ष के सवांद में कुछ कमी हो तो क्या उसे सुधारने की जिम्मेदारी इन दामाद रूपी लडको की नहीं है ? ससुराल पक्ष को नीचा दिखाना से इनकी कामना पूरी हो जाती है ? यदि ऐसा है तब यह दुखद है, ससुराल पक्ष भी क्या उसके परिवार में शामिल नहीं है. अपने घर के समारोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना यदि इनका कर्तव्य में शामिल है तब ससुराल पक्ष के समारोह में कोई भी बहाना बनाकर उससे दुरी रखना इस पक्ष को क्या दुखी करना नहीं है ? आज भी ऐसा ही रहा है, परिवार का कोई भी दामाद रुष्ट हो जाता है, तब परिवार के सदस्य परिवार के मुखिया को इतना जलील करते है कि मुखिया को लगता है, इससे तो मरना भला है. यदि यही नहीं रहेगा तब इनकी खातिरदारी कोन करेगा ? किस पर ये अपनी मनमानी करेंगे. विचारणीय प्रश्न है ?
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