Friday 28 December 2012

हम इडियट है ----------------



जस्टिस काटजू का बयान आया कि ९० % हम देशवासी इडियट है, वह भी हमने सहन कर लिया. आप न्यायाधीश रहे हो, आप ही बुद्धिमान है मान लिया. किन्तु सबके लिये इडियट शब्दों का प्रयोग करना हमारा अपमान करना है. हम चाहे जैसे भी हो ? हम सब अपना खुद कर लेते है. जिस व्यक्ति को लोग प्रधान मंत्री के रूप में देख रहा है उसकी कमजोरी गिना कर अपने को धन्य भाग समझ रहे है. कुपोषण की की तुलना में मोदी शिवराज से पीछे है ? कहकर इनमे फुट डालने का प्रयास भी इन्ही का है, मतलब साफ है. जैसे भी हो हम समाचार पत्रों में अपनी पहिचान ना खोये यही प्रयास हो रहा है. व्यक्तिगत जीवन में देहली के रेप कांड के संदर्भ में किसी ने ताक झांक की है ? सुबह रेली में भाग ले कर शाम कही ओर बिताते है ? यह व्यक्तिगत जीवन है, इस जीवन में कोई टिपण्णी करने का किसी कोअधिकार नहीं है. सच तो यह है कि हमाम में सब नंगे है. काटजू भी नहाते तो होंगे ही ? एक नंगा दूसरे को नंगा कैसे कह सकता है. वाणी की अभिव्यक्ति का वास्तविक रूप से ऐसे विद्वान ही लाभ उठाते है ? ये सब बयान हमारे साथ मजाक है. भले ही इडियट हो किन्तु हमारा भी एक उसूल है. लगता है ये महाशय इस सिद्धांत से परिचित नहीं है. जानवरों का एक प्रोटोकाल हो सकता है तब हम जैसे बेकुकुफो का क्यों नहीं? शर्म हर किसी में होती है, जो इसे त्याग देता है वाणी की स्वत्रंतता वही भोगता है ? यही मेरे विचार से ऐसे बुधिजिवियो के लिये सच हो सकता है. शेर अपनी शिकार खुद ही खोझ कर अपना भोजन खुद ही तैयार करता है, यह सामान्य लोग भी जन भी जानते है, फिर बुद्धिमान लोग इस प्रिंसिपल से क्यों कन्नी काट रहे है ?

Thursday 13 December 2012

जीवन एक महाभारत है। ***

पता नहीं आप यह सोचते है या नहीं किन्तु यह सत्य है कि कृष्ण का महाभारत जीवन में आज भी प्रासंगिक है। अपनों से लड़ने की इच्छा नहीं होती। पराये को दुःख देना स्वभाव में नहीं है। इधर उधर की बातों का ज्ञान नहीं है। जो अच्छा लगता है वह करना चाहते है किन्तु परिवार आड़े आजाता है। किसको देखे किसकी सुने, यही भ्रम है। इसकी सुने तो वह नाराज उसकी सुने तो दूसरा नाराज ? किन्तु किसको नाराज करे यह बताने वाला सारथी नहीं है, इस सारथी के अभाव में जो जैसा चाहता है करता है, इसी कारण जीवन कभी कभी दुखमय हो जाता है, जैसा हो रहा है वही ठीक है, ऐसा मानने वालो की कमी नहीं है। लेकिन यह ठीक नहीं है, जीवन हमारा है, जीवन के कर्तव्य हमारे है, फिर इसे करने के लिये क्यों लोग आड़े आते है? बिना कुछ किये ही सारे संतुष्ट हो जाए यही जादूगरी है, जिसका जो धर्म आधारित काम है, उसे करना ही पड़ेगा, यही सब सोचते है, इसके लिये संसाधन कहा से आयेंगे इसको कोई जानता नहीं, कुल मिलाकर जैसा अच्छा हो सकता वही करता है,इसके लिये कोई भागीदारी स्वीकार करने को तैयार नहीं? अकेला होने के बाद भी एक एक पैसे को जुटाकर अपना धर्म पूरा करता है। जानते है कि यह उन्हें ही करना है। वे ही करेंगे । जिससे थोड़ी बहुत भागीदारी की आशा हम करते वही दूर भागता है? अपना स्वार्थ सब देखते है। धर्म आधारित काम होने के बाद, सब पास आकर महाभारत सुनाते है, इस महाभारत में जो स्वयं योध्या हो वह इनकी महाभारत क्यों सुनेगा? वास्तविकता यह है कि जीवन के इस योध्या को धतराष्ट्र बनाकर हर कोई संजय बनकर उसके किये हुए का हाल बताना चाहते है। अद्भुत बात यह है कि हम अपने माँ बाप को अंधा बनाकर उन्हें उनकी गाथा को अपना बनाकर सुनाते है, आज यह खूबी है, अपना सारा बोझ उन पर डालकर खुद उनका संचित धन अपने कब्जे कर रहे है। जानते है कि उन्हें अपने धर्म आधारित कार्य में उन्हें तकलीफ है, फिर भी उन्हें उनके धन का उपयोग नहीं करने दिया जाता। सब धतराष्ट्र बन रहे है, जो दिशा दिखाता है वही संजय है। धतराष्ट्र तो बहुत है किन्तु संजय कम है, श्रवन जैसा सारथी इन सबके नसीब में नहीं है। आज देश के लगभग २०-२५% व्यक्ति ऐसा ही जीवन जी रहे है। यही सत्य के करीब है । WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.
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हर कुर्सी में उर्जा होती है -----------------


हर कुर्सी में उर्जा होती है
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इस युग में व्यक्ति की पढाई से जादा उसकी बोल चाल पर जादा ध्यान दिया जाता है, यदि किसी आफिस में आपकी कुर्सी न हो तो आप किस के कुर्सी पर बैठते इस पर सबकी निगाह रहती है। यदि कोई स्थान निर्धारित न हो तब हम पदाधिकारी होने के नाते किसी की भी कुर्सी पर बैठ सकते है, यही धारणा है, हर कोई किसी की कुर्सी पर बैठ कर उस पर रोब ज़माने का प्रयास करते है, जिसकी कुर्सी पर वह बैठा है। यहीसे उसकी सोच की गणना शुरू हो जाती है। उसके बारे में  अंदाज शुरू हो जाता है, यदि यह सबआर्डिनेट के कुर्सी पर बैठ जाता है, ऐसा व्यक्ति कितना भी बड़ा महान क्यों न हो अपनी ओछी मानसिकता का परिचय दे ही  देता है?  भले ही इस मर्म को कोई न समझे किन्तु जानकार समझ कर उसके मन बुद्धि का आंकलन कर लेते है। कुर्सी पर बैठने वाला यह नहीं जानता कि कोई उसका आंकलन कर रहा है। कुर्सी पर बैठ कर रौब जमाना ऐसा अंधकार है जो सबको दर किनार कर देता है। कारपोरेट जगत के जानकार यही सब देखते है? एकादमिक करियर अब प्रासंगिक नहीं है? आपके विचार कैसे है, आपकी भाषा में कितना गाम्भीर्य है ? आप कितना अच्छा सवांद कर सकते है ? यही आंकलन जानकार करते है। यदि इसमें सफल है, तो वे आगे की बात करते है। जो रट-रट कर प्रावीण्य हासिल करते है। वे इस युग में कही के नहीं रहते। वे यह मानते है कि हर कर्मचारी के कुर्सी का एक स्वभाव है। उसीके अनुकूल स्वभाव वाला व्यक्ति उस कुर्सी पर बैठ कर न्याय कर सकता है। अपने अधिनस्थ के कुर्सी पर बैठकर क्या न्याय हो सकता है ? उस कुर्सी की सोच जैसा ही हम आचरण करते है,चिलाते है गुस्सा होते है, यह कुर्सी का ही करिश्मा है,विक्रमादित्य की कुर्सी पर बैठकर ग्वाला ही न्याय कर सकता है, यह उनकी कुर्सी की उर्जा है। उर्जा ही हमें बुद्धि देती है, हमें आचरण करना सिखाती है। यही वह कारण है कि हर कुर्सी हर किसी के लिये योग्य नहीं है? आपकी अपनी कुर्सी है, यदि यह नहीं है तब सामान्य जनो की कुर्सी पर बैठकर आप अपना व्यक्तित्व निखार सकते है। जो जिस कुर्सी पर बैठता है वही उस कुर्सी की उर्जा को ग्राह्य कर सकता है। अपनी कुर्सी को छोड़ किसी के कुर्सी पर बैठने से कभी सकारात्मक उर्जा नहीं आ सकती। जो जिस उर्जा की कुर्सी है उसी उर्जा वाले व्यक्ति को उस पर बैठकर, देश और समाज का भला कर सकता है, यदि हमारे उर्जा के अनुकूल कुर्सी नहीं मिले तब जन सामान्य के लिये निर्धारित कुर्सी पर बैठ कर ही अपनी बात कही जा सकती है। यह जरुरी नहीं कि डायस की कुर्सी पर बैठने वाला ही विद्वान होता है? कालिदास, बाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, और स्वामी रामदास तो कभी भी कुर्सी पर नहीं बैठे? आसन से उर्जा प्राप्त कर महान बने है, उच्च सिहासन पर बैठा व्यक्ति भी आज उनको नमन करने जाता है.  स्थल या आसन के सही आंकलन के कारण ही ये हमारे लिये पूजनीय हो गये है. कुर्सी से निकलने वाली उर्जा को ध्यान में रखकर जो उस पर बैठता है, वही इतिहास पुरुष बन जाता  है. कुर्सी को मोह त्यागकर उससे निकलने वाली उर्जा का जानकार ही हमेशा पूजा जाता है.

कद्रदान

कद्र हो तो कद्रदान मिल ही जाते है.
अक्ल हो तो अकलमंद भी मिल जाते है.
जो इनसे बेखबर रहता है.
उसके गधे भी इनके मेलो में बिक ही जाते है.

सोना --------



आदिकाल से सोने के अनेक कद्र दान है। आज भी स्थिति भिन्न नहीं है। हर महिला सोने के पीछे दीवानी है। पता नहीं ऐसा क्यों होता है। यह सत्य है इसीलिए इसकी हर कोई कद्र कर रहा है।  खरीद कर क्या कर रहे है ? घर में उनका स्त्री धन ही है। हर घर में इसका छोटा मोटा बैंक होने के बाद भी बैंक के पीछे घूम रहे है ? महिला किसी भी स्थिति में इसे खोना नहीं चाहती हर किमंत पर वह इसके पास रहता है ? भले ही परिवार इसके विरुद्ध कितनी भी राशी क्यों न गवा दे। यह धन ही उसकी सुरक्षा है ? पति की तुलना में सोना जादा सुरक्षित है, कही न कही अविश्वास की भावना है ? सोने ही विश्वास है। आज के युग में यह मानना कहा तक उचित है ? मेरे विचार से यह सही नहीं है। इसके कारण वह दर्द सहन करती है। सोने की गले की चेन झपटने वाले भले गला कांट दे , यह मंजूर है, काटने का दर्द भी सहन कर लेती है, किन्तु बेचने के नाम पर महिला कभी भी तैयार नहीं होती। अनेक प्रयास करो तब भी यह यह संभव नहीं है। गिरवी रखने की इजाजत भी यह नहीं देती है। कलह क्यों हो ? इसीलिए जैसी भी दशा है, व्यक्ति इसे हाथ भी नहीं लगाता है। जिस भी किमंत हो ,परिवार की लाज रखता है। इसके बदले कितना नुकसान सहन करता है किन्तु लक्ष्मी को कभी रुष्ट नहीं करता। पढ़े लिखे तो अपनी कठिन दशा में भी इसका जिक्र महिला से नहीं करते । एक दुसरे से सात जन्मो का साथ निभाने वालो का मन भेद सोने के कारण ही होता है । बात तलाक तक पहुच जाती है। महिला तलाक सहन करने को राजी है, सोने को छोड़ने के कतई तैयार नहीं। पढ़ी लिखी महिला भी यही आचरण करती है। क्या कहा जाये समझ के परे है। कुछ महिलाये अलग होती है, जो परिवार के लिए इस धन को छोड़ने को हमेशा तैयार रहती है,  रावण की पत्नी मन्दोदरी सोने की लंका की स्वामिनी होने के बाद भी आज भी प्रात: स्मरणीय है, वही सीता सोने के मृग के लिए हठ करती है। परिणाम हम जानते है, राम को रावण का वध करने की कथा ही रामायण है। इस रामायण से परिचित होने के बाद भी क्यों सोने से इतना मोह है ? शायद यही इनकी सुरक्षा है? हर कोई सुरक्षित रहना चाहता है। आज की महिलाये आर्थिक रूप से पुर्णतः सुरक्षित होने के बाद भी सोने से मोह नहीं छुटा पा रही है। यही वह कारण है जो सोने के अहम् को बढा रही है ? किसी ज़माने में 250/- तोला  आज तीस हज़ार के पार है। इसीका का उद्योग महिला करे तो जितना उनके पास है उससे कई गुना सुरक्षित हो सकती है। सोना खरीदने के बाद हमेशा के इसके लिए दरवाजे बंद करना ही क्या सोने की किमंत नहीं बढ़ा रहा है? महिलाओ को इसे बहार निकालकर उसका व्यापार करने से ही इस सोने का अहम् कम होगा ? लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं रहती वह चंचल है , क्या यह मर्म भी महिलाये नहीं समझ रही है ? विचारणीय प्रश्न है ? हर कोई इस प्रश्न पर विचार तो करता है किन्तु समाधान नहीं मिलता ?

अजब दुनिया है -----------------


अजब दुनिया है
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पता नहीं किन्तु अनुभव होता है यहा क्या क्या नहीं होता ? पढे लिखे लड़के कम तनख़ाह पर नौकरीकर रहे है। शिक्षा का आदर नहीं शोषण हो रहा है? जिनका बाप कमजोर होता है। वही यह दिन देखते है? ताकतवर बाप के सामने इन्हें कभी भी यह समस्या नहीं आती है । बाप का कर्तव्यशील रहना इन्हे भाता है। बाप ताकत है, जो इन्हे ऊर्जा देता है और माँ इनके सारे अवगुणो को छिपाकर अपने लाड्ले का गुणो का बखान करने से नहीं चूकती है । इसका यह दोष नहीं यही माँ की ममता है, सुना है हर बाप अपने बेटे की पराजय मे साथ रहता वही माँ सुख मे उनके साथ रहती है। ईश्वर का यही संतुलन है, इस संतुलन को हम ही बिगाड़ते है, बाप पराजय मे साथ न देने की स्थिति में न होते हुए भी उसे इसके लिए मजबूर किया जाता है, माँ ममता दिखाने की दशा में नहीं होते हुये भी उसे ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है। ये पेड़ के पके पत्ते है कभी भी गिर सकते है। इसका ज्ञान नहीं होने के कारण ही यह भ्रम पैदा हो रहा है, हम सब इसी मे जी रहे है। माँ बाप करेंगे इसीलिए हम कुछ नहीं कर रहे है, इसीकारण जहा ला कर रखा है वही है? इस रेखा को बढ़ाना ही आज की जरूरत है, ऊर्जा हीन व्यक्ति एक निश्चित तय सीमा तक जीवन को आगे ले जा सकता है, किन्तु इसके बाद रास्ता हमे ही तय करना है, इनका संचित हमारे ही काम आने वाला है, जो इसे मानता है वही आगे बढ़ता है, धीरु भाई और उनके लड़के इसका उदाहरण हो सकते है, यह संस्कार परिवार मे और शालाओ मे निश्चित दिया जाना चाहिए, माँ बाप की मेहनत उनका उपहार है, जागीर नहीं। किस्मत की लकीर को जैसे भी हो अपनी सूझ बुझ और मेहनत से आगे बढ़ाना ही आज के नवजवानों का दायित्व है।   WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COM

मै राजनिती हूँ ---------



मेरा यह अनुभव है कि किसी कोई समस्या बताओ? बिना सोचे समझे समाधान तुरंत झोली में डाल देता है ? समस्या ग्रस्त व्यक्ति इस समाधान को प्रश्न का हल मान लेता है। दर्द का उत्तर नहीं मिलने के कारण बेचारा राह देखता है। एक से कोई समाधान नहीं मिला इसलिए दूसरों से प्रश्न नहीं कहता है, भ्रम में जीता है। पता नहीं क्यों अनेक लोग यही चाहते है कि दूसरे भ्रम मे जीये। यही हो रहा जब भ्रम में होंगे तभी हम अपने मन की कर सकेंगे? यही आधुनिक सच है। राज नेता भी ऐसा ही कर रहे है। वे केवल आश्वासन दे रहे है ? मै यह कर दूँगा वह हो जायेगा? यही भाषण होता है? वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन इनके पास नहीं है, फिर इनके पास वह कोनसा जादू है जो ऐसा या वैसा करने क भाषण देते है, इनकी इसी मनमानी को नौकरशाह लगाम लगाती है.यही राजनीती मित्रों और परिवार में आ गयी है? इसके कारण हर भरोसेमंद व्यक्ति पीड़ित है, हम खुश रहे दूसरे पीड़ा झेलते रहे यही सिद्धांत चल रहा है। दूसरों की पीड़ा से ही हमारा संसार जगमगा रहा है, यही सोच आगे बढ़ रही है।  यह सोच अनंत नहीं नहीं है, इसका अंत है। किन्तु कोई अंत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। जैसा भी हो अपना जीवन सुखमय बना रहे है। यही गलती हो रही है। कही न कही समाधान देने वाला भी दुखी है, दिखाता है कि आपके कारण ही मै सुखी हूँ। फिर भी बहला रहा है। खुद भी दुविधा में है दूसरों को भी दुविधा में रख रहा है । अंत नहीं वर्तमान में जीने की आदत ने सच को सच कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। सच बोलने के प्रति हम कही न कही कमजोर हो रहे है,यह कमजोरी ही देश और समाज को नष्ट कर रही है। सीधा और सरल उपाय यह है कि हम जो नहीं कर सकते उसको करने की हामी क्यों भर रहे है यही राजनीत है, राजनिति हमारे समाज और परिवार का अंग हो चुकी है।यही राजनीती हमें कही क नहीं छोड़ रही है। WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COMमेरा यह अनुभव है कि किसी कोई समस्या बताओ? बिना सोचे समझे समाधान तुरंत झोली में डाल देता है ? समस्या ग्रस्त व्यक्ति इस समाधान को प्रश्न का हल मान लेता है। दर्द का उत्तर नहीं मिलने के कारण बेचारा राह देखता है। एक से कोई समाधान नहीं मिला इसलिए दूसरों से प्रश्न नहीं कहता है, भ्रम में जीता है। पता नहीं क्यों अनेक लोग यही चाहते है कि दूसरे भ्रम मे जीये। यही हो रहा जब भ्रम में होंगे तभी हम अपने मन की कर सकेंगे? यही आधुनिक सच है। राज नेता भी ऐसा ही कर रहे है। वे केवल आश्वासन दे रहे है ? मै यह कर दूँगा वह हो जायेगा? यही भाषण होता है? वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन इनके पास नहीं है, फिर इनके पास वह कोनसा जादू है जो ऐसा या वैसा करने क भाषण देते है, इनकी इसी मनमानी को नौकरशाह लगाम लगाती है.यही राजनीती मित्रों और परिवार में आ गयी है? इसके कारण हर भरोसेमंद व्यक्ति पीड़ित है, हम खुश रहे दूसरे पीड़ा झेलते रहे यही सिद्धांत चल रहा है। दूसरों की पीड़ा से ही हमारा संसार जगमगा रहा है, यही सोच आगे बढ़ रही है।  यह सोच अनंत नहीं नहीं है, इसका अंत है। किन्तु कोई अंत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। जैसा भी हो अपना जीवन सुखमय बना रहे है। यही गलती हो रही है। कही न कही समाधान देने वाला भी दुखी है, दिखाता है कि आपके कारण ही मै सुखी हूँ। फिर भी बहला रहा है। खुद भी दुविधा में है दूसरों को भी दुविधा में रख रहा है । अंत नहीं वर्तमान में जीने की आदत ने सच को सच कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। सच बोलने के प्रति हम कही न कही कमजोर हो रहे है,यह कमजोरी ही देश और समाज को नष्ट कर रही है। सीधा और सरल उपाय यह है कि हम जो नहीं कर सकते उसको करने की हामी क्यों भर रहे है यही राजनीत है, राजनिति हमारे समाज और परिवार का अंग हो चुकी है।यही राजनीती हमें कही क नहीं छोड़ रही है। WWW.HUMARAMADHYAPRADESH.COM

जंग ----


जंग
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तपश्या इतनी गहरी हो, हो कि विरोधी भी सोचे कि प्रयत्क्ष में विरोध करना चाहिए या नहीं ? यदि यह सात्विक है तो सामने कोई विरोध नहीं करेगा. किन्तु यह पीठे पीछे जरुर छुरा घोपेगा. यही तपस्या अनेको दुश्मनों को पैदा करती है. दुश्मन भी ता
क में रहते है कि कब मौका मिले और इसको लम्बा करे?जीवन का यही अंग है.यह अनहोनी ही हमेशा दिशा भ्रम करती है. वास्तव में जो आपके सामने कुछ कर पाते है, वही कुछ करने के लिये पीछे के दरवाजा खोजते है. युध्द का नियम है, जो आमने सामने युध्द नहीं कर सकता. वह या तो मैदान छोड़ देता है या परास्त करता है. किन्तु उत्तम योध्दा कभी पीछे से वार नहीं करता. यही हमने गीता और रामायण में पढ़ा है. आज हम इन नियमों को क्यों भूल गये है, जो आमना सामना नहीं कर सकता. उसे पीछे से वार करने की जरुरत नहीं होना चाहिए, यह एक सामान्य सा नियम है. हारा योध्दा है. यही योध्दा हमेशा हार स्वीकारता है, किन्तु आज के विचार से परास्त करना ही उसका उदेश्य बचा है. येनकेन प्रकारेन हम यह युध्द जितना चाहते है. भले पीठ पीछे छुरा घोपे. यही जीवन का मकसद बन गया है. योध्द्या का संस्कार छोडकर कर, योध्द्या को शर्मसार कर रहे है. अनेक सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में यही हो रहा है. सामने कोई नहीं बोलता किन्तु पीठ पीछे अपनी लकीर को बड़ा करने का उपक्रम चल रहा है, योध्दा नहीं कायर जंग जी
त रहे है,ताकत के भरोसे नहीं वरन उस ताकत का उपयोग करते है,जो कायर से अपेक्षा की जाती है. यही वह वजह है हर जगह योध्दा मात खारहा है. निर्णायक भी उसे ही जीता करार दे रहे है. निर्णायक जो आगे आयेगा उसे ही जीता मानते है, युध्द की रणनीति से वे भी परिचित नहीं है.वास्तविकता यह है कि आज क जंग योध्दा यही कायर लड़ रहे है. उन्हें जंग जीतने के लिये प्रेरित भी हम ही कर रहे है, इसी जीत का जश्न भी मना रहे है? इसी कारण जीत के जो परिणाम जो आना चाहिए वह नहीं आरहे है? जीते या जंग हारे यही भ्रम है? इसी भ्रम में अपना भविष्य निर्धारित कर रहे है. भ्रम हमेशा ही कन्फ्यूजन की स्थिति पैदा करता. आज यही स्वीकार्य है.