Sunday 28 October 2012

विहिनी ची पंगत -------------------


महाराष्ट्रियन  शादी में " विहिनी ची पंगत " एक महत्व पूर्ण समारोह होता है. एक मायने में पूरी शादी का समापन समारोह यही  होता है, शादी का यह कार्यक्रम लड़के की माँ के लिए होता है, जो लड़की वालो की समधन है, नाना प्रकार के मिष्टान के साथ करेले का बेला इस पगंत का खास मेहमान होता है, विहीन को पंगत में पहुचने के लिए जाने वाले रास्ते को फूलो से बनाया जाता है. रास्ते के अंत में विहीन के पैर धोये जाते है. इन सब के बाद अपने करीबियों के साथ विहीन लड़के और बहु के बीच में बैठकर भोजन की शुरुवात करती है. पंगत को मजेदार बनाने के लिए एक दुसरे से पति और पत्नी के नाम लेने के लिए उखानो का आग्रह होता है.उन उखानो से कुछ मिनटों की पगंत घटो के बदल जाती है, इसकी तैयारी के लिए वधु पक्ष के लोग भारी मेहनत कर विहीन को प्रसन्न रखने का उपक्रम करते है. इस पक्ष के लोग इस पगंत में कही कोई कमी न हो इसका ध्यान रखने के लिए पुरे समय स्वयं सेवक की भूमिका निभाते है. भोजन के अंत में दूध से विहीन के हाथ धुलाये जाते है, और चांदी की लौग से सत्कार किया जाता है. इस महत्व पूर्ण पगंत के बाद ही वधु पक्ष  भोजन करता  है. प्रश्न यह है कि यदि वधु पक्ष के लिए वर की माँ यदि विहीन है तब वर पक्ष के लिए वधु की माँ भी तो समधन होती है, समधनो की सामूहिक पंगत और वर की माँ जैसा सत्कार वधु की माँ का क्यों नहीं किया जाता. यदि ऐसा किया जाय तो यह पंगत और आनन्द दायक के साथ समय की भी बचत हो सकती है. चांदी की लौंग और दूध से हाथ धुलाना आज प्रासंगिक नहीं है. 
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Wednesday 24 October 2012

रावण की पीड़ा -------------------



आज विजया दशमी है. असत्य पर सत्य की विजय के रूप में हम इसे मनाते है. अनेक लोग असत्य और बुराई के प्रतिक रावण का दहन कर आतिश बाजियों का प्रदर्शन कर अपने वैभव को दिखाते है, भले ही यह वैभव चंदे के रूप में एकत्रि
त किया गया हो, इस निर्जीव रावण को मारने के लिये अनेक ख्यातिनाम समाज सेवी, राजनेता और प्रभाव शाली लोग समारोह के मुख्य अथिति बनकर रावण का दहन करने का सौभाग्य प्राप्त करते है ? ऐसे महानुभाव के चयन के लिये कोई मापदंड नहीं है , इस कारण हो सकता है, रावण का दहन करने वाली विभूति के आचरण के सामने रावण का व्यवहार भी शर्मिंदा होता हो. यह सब हम इसी दिन कर फिर से एक साल के लिये रावण को भूलकर रावण जैसा आचरण क्या नहीं करते ? रावण जैसा ज्ञानी, महान ज्योतिषी और शिवभक्त ऐसे हाथो से मरने को मजबूर है, जो इनकी तुच्छ विद्वता को ही स्वीकार करते हुए मर जाता है, क्योकि वह निर्जीव है, यदि जीवित होता तो क्या ये तथाकथित महानुभाव इसे मार सकते है ? दशानन के सामने एक सर वाला कहा लगता है , विडम्बना यही है . इतिहास में झाके तो हमें रावण से भी अधिक बुराई वाले खल नायक मिल जायेंगे. मामा शकुनी के षड्यंत्र से सभी परिचित है ? कंस को कोन नहीं जानता ? प्रह्लाद के पिता तो होली में ही याद आते है ? द्रोपदी का चीरहरण करने वाला और इसके साक्षी क्या क्षमा योग्य हो गये है ? लगता है रावण को यह सब खलता होगा और वह यह भी सोचता होगा कि इतने बड़े खलनायकों के होते हुए भी मै महाखलनायक कैसे बन गया . रावण के लिये यह विचारणीय प्रश्न हो सकता है. उसकी योग्यता की कोई उपयोगिता नहीं किन्तु उसकी गलतियों के आकार को बड़ा बनाकर उसे महा खलनायक बनाने का यह उपक्रम शायद ही उसे रास आता हो. क्या ऐसा ही उपक्रम हम अपने प्रतिद्वंदियों के आज नहीं कर रहे है ? यदि ऐसा है तब रावण से बड़े खलनायक हमें इस संसार में खोजने का प्रयास नहीं करना पड़ेगा. आज भी मध्यप्रदेश के मंदसोर शहर में रावण को मारने से पहले उससे क्षमा याचना करने की परम्परा विधमान है . यह एक विषय है जिसे मैंने अपनी द्रष्टि से देखा है. सबके अपने विचार हो सकते है.

Sunday 21 October 2012

कारोबार -------



जगल का राजा शेर काला था. वह अपने खास मंत्री के लिये काले मुह वाला सियार की खोज में था, काफी खोज के बाद यह सियार मिल गया. अब मंत्री और राजा काले मुह वाले जानवर की फौज बनाना चाहते थे. इसके लिये बकायदा विज्ञापन भी दिया गया. आवेदन भी आये, साक्षात्कार भी हुआ. अनेक काले मुह और राजा की भाषा  से परिचित जानवरों का चयन भी हो गया. राजा और मंत्री खुश थे कि उनके जमात के जानवर उन्हें मिल गये थे. किन्तु इस जमात में ऐसे भी जानवर थे जो राजा की भाषा से न तो परिचित थे और नाही वे इनके व्यवहार को जानते थे. राजा के लिए यह अच्छी बात थी. सभी गोपनीय व्यवहार का विचार अपनी भाषा में ही करते थे. उनका व्यवहार किसी और के समझ में ना आये इसकी वे हमेशा सावधानी बरतते थे. इनका कारोबार उस आबादी में था जिसकी बोली भाषा राजा की बोली से भिन्न थी, आचार व्यवहार में भी फर्क था. फिर भी राजा का कारोबार चल रहा था. किन्तु राज्य के अन्य जानवर राजा और उनके सहयोगी के व्यवहार से खुश नहीं थे. इन्हें लगता था कि ये सब अपनी  भाषा में उनकी बुराई कर रहे है.असंतोष धीरे धीरे बढ़ने लगा. और उस राज्य के संगठित लोगो ने कारोबार में असहयोग शुरू कर दिया और एक  दिन राजा के कारोबार को छोड़ दिया. राजा के पास काम करने वाले जानवर कम होने के कारण उसे अपना कारोबार बंद करना पड़ा, सियार मंत्री होशियार था, उसने उस प्रदेश भाषा और व्यवहार को आत्मसात कर लिया था, अब मंत्री और राजा के चयनित नौकरों ने राजा का वध कर उसके कारोबार को उस प्रदेश के जानवरों को हिस्सेदार बनाकर फिर शुरू कर दिया.आज यह कारोबार चरम पर है. जिस जगह कारोबार हो उस स्थान के व्यक्तियों के सहयोग से ही मनुष्य उन्नति कर सकता है.
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भगवान की कृपा है ------------------------------------------------



हमें यह सिखाया जाता है कि सत्य की राह चलो, इस राह पर चलने वाला व्यक्ति परेशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं. जीत इसी राह चलने वाले व्यक्ति की होनी है, चाहे कुछ भी क्यों न ह

ो जाए. यह धर्म आधारित है. राम और कृष्ण भी इसी राह पर चले परेशान हुए फिर विजय श्री इन्होने ही हासिल की. इसी व्याक्य का प्रयोग आज अनेको कार्यालयों में हो रहा है. बड़े बड़े इस व्याक्य के अक्षर पढने में सुहाने लगते है. परन्तु सतही धरातल पर परिणाम शून्य है. कल मै बैतूल से भोपाल आ रहा था. आरक्षण था, सूची में नाम नहीं होने के कारण इसकी जानकारी लेने रेल के समन्धित आफिस में गया, वाह बैठे साहब से मैंने अपनी व्यथा बताई, उन्होंने पूछा आपने आरक्षण कहा से कराया मै कहा सर बैतूल से , उन्होंने कहा टिकिट दिखाओ मैंने उन्हें टिकिट दिखाया , वे बोले ये नेट का टिकिट है, इसलिए सूची में नाम नहीं है, गाड़ी के टीटी के पास इसकी जानकारी होगी, जब मै लौट रहा था तब इस धर्म आधारित व्याक्य पर नजर पड़ी मैने साहब से पूछा सर इस व्याक्य का क्या अर्थ है, वे थोड़े सकुचाये और फिर मुस्कराकर कर बोले यह सत्य है कि आपका आरक्षण है, आपको बर्थ भी मिलनी है. किन्तु आप परेशान है. हम इसी परेशानी का कारोबार करते है. सत्य की परेशानी और सत्य के पराजित में जो अवधि है, यही अवधि हमारे व्यापार के लिए महत्व पूर्ण घटक है, रेल में सब कम्प्यूटर के भरोसे होने के कारण, हमारे पेट पर जम कर लात पड़ी है, लेकिन आदत ज्यो की त्यों है, इसलिए छोटी छोटी बातो में से व्यवसाय का रास्ता निकल ही जाता है. भगवान की कृपा जो है. सभी सरकारी दफ्तरों में नीति वाक्यों की भरमार है. किन्तु इन्ही में से कुछ अपना व्यापार आज भी चला रहे है. गांधीजी के दर्शन कराने की सुचना देने मात्र से बड़े बड़े काम आसन हो जाते है. ऐसा सूचित करने की भी अब जरुरत नहीं है. हर दफ्तर में गांधीजी की फोटो लगी है, इस तस्वीर की और आपका इशारा ही काफी है. जय जय श्रीराम

Monday 15 October 2012


परस्पर अविश्वास
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परस्पर आज एक दुसरे को शंका की द्रष्टि से देखते है, हँसते बोलते है, लेकिन मन में कुछ और चल रहा होता है. कार्य स्थल पर भी इससे स्थिति भिन्न नहीं है, हर व्यक्ति अविश्वास की भावना से ग्रस्त है. कब कौन कोनसा व
ार करेगा यही चिंता का विषय है. दुश्मनों से सावधान तो रहते है किन्तु दोस्तों का भय भी सता रहा होता है. मेहमानों का स्वागत तो करते है किन्तु किंमती सामान ताले में रख दिया जाता है. हर क्षेत्र में यही स्थिति है. व्यक्ति आज सुरक्षा के बदले असुरक्षा के घेरे में जादा है, सबकी नियत में खोट है, यह सब क्यों हो रहा है ? यही चिंता का विषय है. मुझे लगता है बचपन में संस्कारो की कमी से यह हो रहा है. जो माँ संस्कार देने वाली है , उसे संस्कारो से परिचित नहीं कराया गया, यदि परिचय हुआ भी है तो कान्वेंटी संस्कृति में यह समां गया ? माँ का आचल अब कहा मिलने वाला है. परिधान बदल गए है, जिस माँ पर घर और बेटो की जिन्दगी सवारने का दायित्व है, वह आज आर्थिक बोझ को कम करने में जुटी है. बच्चो की परवरिश झुला घर में हो रही है , संस्कार कहा से आयेंगे. बड़े बड़े कान्वेंटी स्कुल खुल गए है, भरी भरकम फ़ीस ली जा रही है, फिर भी नैतिक शिक्षा का नाम नहीं है. आज के स्कुलो में संस्कारो के लिए नैतिक शिक्षा जरुरी हो गयी है. बड़े बड़े जन सेवा से जुटे संघटन के कर्तव्यो के विषय में यह विषय नहीं है. सप्ताह में एक दिन भी इस शिक्षा के लिए आयोजन किया जाय तो बड़ा परिवर्तन आने में देर नहीं लगने वाली है ? सबका इस और प्रयास देश और समाज के आवश्यक है. सोचे आगे बढे कुछ तो परिवर्तन आएगा.